Page 1 of 4

आह-सी धूल उड़ रही है आज चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं और सामान सारा बेतरतीब दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं...

अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ। गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में–...

लफ़्ज़ एहसास से छाने लगे, ये तो हद है लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है आप दीवार उठाने के लिए आए थे आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है...

जाने किस—किसका ख़्याल आया है इस समंदर में उबाल आया है एक बच्चा था हवा का झोंका साफ़ पानी को खंगाल आया है...

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है...

परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर...

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये...

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है...

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।...

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं जिनमें बस कर नमी नहीं जाती...

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए...

एक घनिष्ठ-सा दिन आज एक अजनबी की तरह पास से निकल गया...

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो ...

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए...

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं। चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं।...

बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई...

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ...

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और ...

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।...

चांदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी ...

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही ...

दूध के कटोरे सा चाँद उग आया। बालकों सरीखा यह मन ललचाया। (आह री माया! इतना कहाँ है मेरे पास सरमाया?...

दुख : किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा किंतु सुख : तमंचे की गोली जैसा मुझको लगा है। आप ही बताएँ...

जो मरुस्थल आज अश्रु भिगो रहे हैं, भावना के बीज जिस पर बो रहे हैं, सिर्फ़ मृग-छलना नहीं वह चमचमाती रेत! क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन?...

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो ...

साँझ। दो दिशाओं से दो गाड़ियाँ आईं रुकीं।...

यह समंदर है। यहाँ जल है बहुत गहरा। यहाँ हर एक का दम फूल आता है। यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी व्यर्थ लगती है।...

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे...

पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी लपट आने लगी है अब हवाओं में ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी ...

दूर तक फैली हुई है जिंदगी की राह ये नहीं तो और कोई वृक्ष देगा छाँह गुलमुहर, इस साल खिल पाए नहीं तो क्या! सत्य, यदि तुम मुझे मिल पाए नहीं तो क्या!...

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है ...

"आह! मेरा पाप-प्यासा तन किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में बँध गया चुपचाप...

मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं! एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको ऊसर मैदानों पर खेतों खलिहानों पर...

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए ...

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख ...

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी जो तुम्हें शीत देतीं और मुझे जलाती हैं किन्तु...

"खँडहरों सी भावशून्य आँखें नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं। बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं; टूटी हुई जिंदगी...

मैं जो अनवरत तुम्हारा हाथ पकड़े स्त्री-परायण पति सा इस वन की पगडंडियों पर...

मानसरोवर की गहराइयों में बैठे हंसों ने पाँखें दीं खोल शांत, मूक अंबर में...

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए ...