गीत तेरा
गीत तेरा मन कँपाता है। शक्ति मेरी आजमाता है। न गा यह गीत, जैसे सर्प की आँखें कि जिनका मौन सम्मोहन सभी को बाँध लेता है, कि तेरी तान जैसे एक जादू सी मुझे बेहोश करती है, कि तेरे शब्द जिनमें हूबहू तस्वीर मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है; न गा यह ज़िंदगी मेरी न गा, प्राण का सूना भवन हर स्वर गुँजाता है, न गा यह गीत मेरी लहरियों में ज्वार आता है। हमारे बीच का व्यवधान कम लगने लगा मैं सोचती अनजान तेरी रागिनी में दर्द मेरे हृदय का जगने लगा; भावना की मधुर स्वप्निल राह-- ‘इकली नहीं हूँ मैं आह!’ सोचती हूँ जब, तभी मन धीर खोता है, कि कहती हूँ न जाने क्या कि क्या कुछ अर्थ होता है? न जाने दर्द इतना किस तरह मन झेल पाता है? न जाने किस तरह का गीत यौवन तड़फड़ाता है? न गा यह गीत मुझको दूर खींचे लिए जाता है। गीत तेरा मन कँपाता है। हृदय मेरा हार जाता है।

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