Page 2 of 11

शमशेर-- मेरा दोस्त ! चलता चला जा रहा है अकेला कंधे पर लिए नदी, मूँड़ पर धरे नाव !...

मैं जिलाए औ’ जगाए ही रहूँगा देह का दुर्लभ दिया।...

मौत को साधे शब्द अंतरंग से बाहर यथार्थ की दुनिया में आए, अकुलाए...

क्या यह सच है कि सच नहीं है झूठ जैसे झूठ नहीं है...

झूठ नहीं सच होगा साथी! गढ़ने को जो चाहे गढ़ ले मढ़ने को जो चाहे मढ़ ले शासन के सौ रूप बदल ले...

घण्टियों की आवाज़ से घायल कराहता, आह भरता धृष्ट अंधकार...

यह जो मेरा अंतःकरण है मेरे शरीर के भीतर मैंने इसे युग और यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में...

बकझक बकझक नहीं करो, उल्टे पाँव नहीं डगरो;...

अच्छा लगता है जब कोई बच्चा खिल-खिल हँसता है।...

हाथ से बेहाथ होकर गिरा, टूटा, फर्श पर दम तोड़ बैठा,...

एक ही दफे नहीं- कई-कई दफे देखा है मैंने उसे। जब-जब देखा है मैंने उसे- लकदक लिबास में देखा है मैंने उसे।...

तुम हो -दिन में- सूर्यमुखी नदी की नटखट देह,...

गए तुम भी, गए जैसे और- सृजन के...

दिन है किसी और का सोना का हिरन, मेरा है ...

सिर पर सवार चढ़े बैठे हैं गुम्बद (महान्-...

दाल-भात खाता है कौआ मनुष्य को खाता है हौआ नकटा है नेता धनखौआ न कटा हो मानो कनकौआ...

ये बड़कवे, पुराने, गब्बर, पेटू अफसर चाल-फेर से...

पहाड़ पर खड़ी है नीलाम्बरी लौ अंधकार इससे हारा घाटियों में कराहता है...

दयालु हो गया है दीन दान देते-देते, दीन हो गया है क्षीण दान लेते-लेते,...

ढेर लगा दिए हैं हमने पुलों के पहियों के अपनी सदी के उस पार जाने के लिए...

मान पाते हैं गोबर-गनेश गौरव नहीं पाते हैं महेश...

जाला लग गया है उजाले में : अतीत के चित्र देखते-देखते।...

चारु चरित्री, चित्रित भाषा, मानवबोधी व्यंजक हो- संज्ञानी प्रतिबिंबन वाली...

हम हो गए हैं बौने और कीमतें हो गई हैं सुरसा वस्तुएँ हो गई हैं पहुँच से परे...

चित्त होते हारते चले जाते हैं- एक-से-एक पुरन्दर पहलवान,...

खिला है अग्निम प्रकाश संध्याकाश में; कमलबन की तरह नयनाभिराम, प्रवाल-पँखुरियों के सम्पुट खोले,...

फूलों ने होली फूलों से खेली लाल...

विद्वान अंधेरा ढपोरशंखी सूर्य दोनों हमारे हैं और हम...

अपनी हथेलियों में अपने अस्तित्व के चावल लिए, चोंच मारती ...

उसे देखना न जाने किस ज्वार में बह जाने के समान है उसे भेंटना न जाने किस छंद में कस जाने के समान है...

यह ठगौरी ठाठ क्षपनक बंधे ऋण के घाट देख कर गणराज का यह साज आ रही है लाज।...

मैंने देखा दिन का शीशा : मुझ से बड़ा पक कर...

कविता अंश युग की गंगा पाषाणों पर दोडे़गी ही लम्बी , ऊंची ...

नेतृत्व का नायक कभी यहाँ, कभी वहाँ भटकता है,...

टैक्सों की भरमार- हमारी करती है सरकार! जीवन का अधिकार- हमारी हरती है सरकार!!...

न यह याद रहता है मुझे न वह; बस याद रहता है मुझे रंग रोर;...

चन्द्र चमत्कृत दर्पण-देही चैत चाँदनी फगुआई है फूली है...

पहला पानी गिरा गगन से उमँड़ा आतुर प्यार, हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार। भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,...

देख ली है मैंने उसके ऎश्वर्य की प्रदर्शनी कि वह फीकी है अबोध शिशु की हँसी के सामने...

मनहर, जैविक जीवन-धारी रंग-बिरंगे पंखों वाला यह कठफोड़वा,...