यह जो मेरा अंतःकरण है
यह जो मेरा अंतःकरण है मेरे शरीर के भीतर मैंने इसे युग और यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में द्वन्द्व और संघर्ष को झेल-झेलकर सोच-समझ से मानवीय मूल्यों का साधक और सृजन-धर्मी बनाया तब अपनाया। यही तो है मेरे चिंतन का- मानवीय बोध का परिपुष्टि केंद्र। इसी केंद्र से प्राप्त होती है मुझे अडिग अखंडित आस्था- चारित्रिक दृढ़ता। इसी परिपुष्ट केंद्र से निकली चली आती हैं मेरे आत्म-प्रसार की कविताएँ दूसरों का आत्म-प्रसार बनने वाली कविताएँ जो नहीं होतीं कुंठा-ग्रस्त जो नहीं होतीं पथ-भ्रष्ट जो नहीं होतीं धर्मान्ध जो नहीं होतीं साम्प्रदायिक जो नहीं होतीं काल्पनिक उड़ान की कृतियाँ जो नहीं होतीं भ्रम और भ्रांतियों का शिकार जो नहीं होतीं खोखले शिल्प की खोखली अभिव्यक्तियाँ जो नहीं होतीं मानवीय जीवन की, मुरदार अस्थियाँ जो नहीं होतीं तात्कालिक जैविक संस्पर्शशील, जो नहीं होतीं राजनैतिक हठधर्मिता की संवाहक जो नहीं होतीं अवैज्ञानिक या अलौकिक बोध की प्रतिविच्छियाँ। मैंने इसी परिपुष्ट और परिष्कृत केंद्र का जीवन जिया है न मैंने अंतःकरण को दगा दिया न अंतःकरण ने मुझे दिया न मैं हतप्रभ हुआ- न मेरा अंतःकरण, प्रारम्भ से ही संवेदनशील होता चला आया है मेरा अंतःकरण तभी तो मैं भी इसी के साथ-साथ संवेदनशील होता चला आया हूँ तभी तो मेरी कविताएँ भी वही संवेदनशीलता संप्रेषित करती चली आती हैं तभी तो चेतना और चिरायु होकर जीती-जागती रहती हैं, मेरी कविताएँ।

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