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सूनी सड़कों पर ये आवारा पाँव माथे पर टूटे नक्षत्रों की छाँव कब तक आखिर कब तक?...

तप्त माथे पर, नजर में बादलों को साध कर रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर...

तुम मेरे कौन हो कनु मैं तो आज तक नहीं जान पाई बार-बार मुझ से मेरे मन ने आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है- ...

यह जो अकस्मात् आज मेरे जिस्म के सितार के एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो- सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत...

फीकी फीकी शाम हवाओं में घुटती घुटती आवाजें यूँ तो कोई बात नहीं पर फिर भी भारी भारी जी है, माथे पर दु:ख का धुँधलापन, मन पर गहरी गहरी छाया मुझको शायद मेरी आत्मा नें आवाज कहीं से दी है!...

रात: पर मैं जी रहा हूँ निड़र जैसे कमल जैसे पंथ...

दीदी के धूल भरे पाँव बरसों के बाद आज फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव; अगहन की कोहरीली भोर:...

दुख आया घुट घुटकर मन-मन मैं खीज गया सुख आया...

क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु ? लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी ! इसी लिए तब मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,...

ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो दर्द, हाँ अगर चाहो तो इसे दर्द कहो मगर ये और भी बेदर्द सजा है ए दोस्त! कि हाड़ हाड़ चिटख जाए मगर दर्द न हो!...

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का हुकुम शहर कोतवाल का... हर खासो-आम को आगह किया जाता है कि खबरदार रहें...

मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब...

गड़ने दो यदि फाँसें गड़ी हैं उँगलियों में: मुरली बनाने का यह है अनिवार्य क्रम! फिर इन्हीं उँगलियों के मादक स्पर्शों से...

यह पान फूल सा मृदुल बदन बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार! कुँजो की छाया में झिलमिल...

सख्त रेशम के नरम स्पर्श की वह धार उसको नाम क्या दूँ? एक गदराया हुआ सुख, एक विस्मृति, एक डूबापन काँपती आतुर हथेली के तले वह फूल सा तन...

अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुवेला, यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना, मिलो जब गाँव भर से बात कहना, बात सुनना...

ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं और ख़ुशबू सा बिखर जाता हृदय का दर्द!...

बिदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़ अँधेरे में छूटते चुपचाप बूढे पेड...

क्या यह अंधेरा ही एक मात्र सत्य है? प्रश्न यह मैंने बार-बार दोहराया है! उत्तर में कोई कुछ नहीं बोला! उत्तर में, ओ सूर्या!...

फिर, बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका! फिर पंखुरियों, कमसिन परियों वाली अल्हड़ तरुणाई,...

घाट से आते हुए कदम्ब के नीचे खड़े कनु को ध्यानमग्न देवता समझ, प्रणाम करने जिस राह से तू लौटती थी बावरी...

ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ...

छिन में धूप छाँह छिन ओझल, पल पल चंचल- गोरी दुबली, बेला उजली, जैसे बदली क्वार की...

मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत! क्या जाने कब...

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे...

तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास ! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो !...

विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़ अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़ ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह? ...

ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव, मेरी गोद में ! ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव, मेरी गोद में !...

आज-कल तमाम रात चांदनी जगाती है मुँह पर दे-दे छींटे अधखुले झरोखे से...

चेक बुक हो पीली या लाल, दाम सिक्के हों या शोहरत - कह दो उनसे जो ख़रीदने आये हों तुम्हें ...

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की ! आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी ...

ये शामें, सब की शामें... जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में ...

एक: शाम है, मैं उदास हूँ शायद अजनबी लोग अभी कुछ आयें देखिए अनछुए हुए सम्पुट ...

सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अभी तो पलक में नहीं खिल सकी नवल कल्पना की मधुर चाँदनी ...

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना ...

मैं क्या जिया ? मुझको जीवन ने जिया - बूँद-बूँद कर पिया, मुझको पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया ...

ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पाल उड़ाती आती ...

इस डगर पर मोह सारे तोड़ ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार...

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना ...

बारिश दिन ढले की हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम तुम हो और,...