कनुप्रिया - पहला गीत
ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन- चुपके से सो गयी हूँ कि कब मधुमास आए और तुम कब मेरे प्रस्फुटन से छा जाओ ! फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया, तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोई हुई- और अब समय आ गया कि मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल कलियाँ बन खिलूँगी ! ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरी ही प्रतीक्षा में कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !

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