शाम - दो मनःस्थितियाँ
एक: शाम है, मैं उदास हूँ शायद अजनबी लोग अभी कुछ आयें देखिए अनछुए हुए सम्पुट कौन मोती सहेजकर लायें कौन जाने कि लौटती बेला कौन-से तार कहाँ छू जायें! बात कुछ और छेड़िए तब तक हो दवा ताकि बेकली की भी द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए ताकि आहट मिले गली की भी! देखिए आज कौन आता है कौन-सी बात नयी कह जाये या कि बाहर से लौट जाता है देहरी पर निशान रह जाये देखिए ये लहर डुबोये, या सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये! कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो अधखिले फूल-सी विनत अंजुली कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो? दो: वक़्त अब बीत गया बादल भी क्या उदास रंग ले आये देखिए कुछ हुई है आहट-सी कौन है? तुम? चलो भले आये! अजनबी लौट चुके द्वारे से दर्द फिर लौटकर चले आये क्या अजब है पुकारिए जितना अजनबी कौन भला आता है एक है दर्द वही अपना है लौट हर बार चला आता है! अनखिले गीत सब उसी के हैं अनकही बात भी उसी की है अनउगे दिन सब उसी के हैं अनहुई रात भी उसी की है जीत पहले-पहल मिली थी जो आखिरी मात भी उसी की है! एक-सा स्वाद छोड़ जाती है ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी लोग आये गये बराबर हैं शाम गहरा गयी, उदासी भी!

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