नवम्बर की दोपहर
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की ! आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी इस मन की उँगली पर कस जाये और फिर कसी ही रहे नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी वक्षों के बीच कसमसी ही रहे भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की उस आँगन में भी उतरी होगी सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में आज इस वेला में दर्द में मुझको और दोपहर ने तुमको तनिक और भी पका दिया शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई रेल के किनारे की पगडण्डी कुछ क्षण संग दौड़-दौड़ अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी...

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