कितनी शान्ति! कितनी शान्ति! समाहित क्यों नहीं होती यहाँ भी मेरे हृदय की क्रान्ति? क्यों नहीं अन्तर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी, अथिर यायावर, अचिर में चिर-प्रवासी...
दूर, नील आकाश के पट पर खचित-से,उस खँडहर के झरोखे में पड़कुलिया का जोड़ा बैठा है। बेरी के वृक्ष पर बैठी हुई चील कठोर किन्तु उग्र अनुभूति-भरी पुकार द्वारा आकाश में उड़ते हुए अपने सहचर को बुला रही है। अनभ्राकाश की विस्तीर्ण हल्की नीलिमा में दोपहरी का प्रकाश विलीन या व्याप्त हो कर एक अदृश्य किन्तु तीखी ज्योति से चमक रहा है।...
कर चुका था जब विधाता प्यार के हित सौध स्थापित विरह की विद्युन्मयी प्रतिमा वहाँ कर दी प्रतिष्ठित! बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने- वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित!...
इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,...
यहाँ हेलास के द्वीपों में हम अपनी बहुओं को प्यार करते हैं और चाहते हैं कि वे जैसी हैं उस से कुछ दूसरी होतीं।...
हम कृति नहीं हैं कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्। क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब इस विलास का योग मिला ?—जो...
तुम्हारी देह मुझ को कनक-चम्पे की कली है दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है। (रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई...
मैं सभी ओर से खुला हूँ वन-सा, वन-सा अपने में बन्द हूँ शब्द में मेरी समाई नहीं होगी मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।...
रजनी ऊषा में हुई मूक कुछ रो-रो कर, कुछ काँप-काँप; इस असह ज्योति से बचने को मैं ने मुख अपना लिया ढाँप! याचना मात्र से कैसे निधि पा लेगा जो था सदा क्षुद्र? युग-युग की प्यासी हो कर भी धूली क्या पी लेगी समुद्र!...
यह भी क्या बन्धन ही है? ध्येय मान जिस को अपनाया मुक्त-कंठ से जिस को गाया समझा जिस को जय-हुंकार, पराजय का क्रन्दन ही है? अरमानों के दीप्त सितारे जिस में प्रतिपल अनगिन बारे...
(निकिता स्तानेस्कू की स्मृति में) सभी तो गूँगे हैं, पर एक निकलता है जो अपने गूँगेपन को पहचानता है उसका दर्द बोलता है और उस में...
तुम हँसी हो-जो न मेरे ओठ पर दीखे, मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है। धूप-मुझ पर जो न छायी हो, किन्तु जिस की ओर...
इस मन्दिर में तुम होगे क्या? इन उपासकों से क्या मुझ को? ये तो आते ही रहते हैं। जहाँ देव के चरण छू सके-सौरभ-निर्झर ही बहते हैं। अब भी जीता पदस्पर्श? मुझ को यह बदला दोगे क्या?...
हम ने हाथ नहीं बढ़ाया : हम ने आँखों से चूम लिया। खड़े ही रहे हम, थिर, हाँ, हमारे भीतर ही ब्रह्मांड घूम लिया। 'कितनी दूर होते हैं तारे', हम सोचते तो सोचते ही रह जाते- 'कब भला भाग्य जागेंगे हमारे?'...
काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ लाला जी, जेवर बनवा दो खाली करो तिजोरियाँ! काँगड़े की छोरियाँ! ज्वार-मका की क्यारियाँ हरियाँ-भरियाँ प्यारियाँ...
आज चल रे तू अकेला! आज केंचुल-सा स्खलित हो असह माया का झमेला! जगत् की क्रीड़ा-स्थली में संगियों के साथ खेला- सघन कुंजों में पड़े तूने स्त्रियों का प्यार झेला-...
आँख ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं। भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं। राह मैनें बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, गए भी, --कदाचित, कई बार--...
अरे ओ खुलती आँख के सपने! विहग-स्वर सुन जाग देखा, उषा का आलोक छाया, झिप गयी तब रूपकतरी वासना की मधुर माया; स्वप्न में छिन, सतत सुधि में, सुप्त-जागृत तुम्हें पाया-...
कुछ नहीं, यहाँ भी अन्धकार ही है, काम-रूपिणी वासना का विकार ही है। यह गुँथीला व्योमग्रासी धुआँ जैसा आततायी दृप्त-दुर्दम प्यार ही है।...
झील का निर्जन किनारा और वह सहसा छाए सन्नाटे का एक क्षण हमारा । वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा...
अभी नहीं-क्षण भर रुक जाओ, महफिल के सुनने वालो! मत संचित हो कोसो, हे संगीत सुमन चुनने वालो! नहीं मूक होगी यह वाणी, भंग न होगी तान- टूट गयी यदि वीणा तो भी झनक उठेंगे प्राण!...
मेरे आरती के दीप! झिपते-झिपते बहते जाओ सिन्धु के समीप! तुम स्नेह-पात्र उर के मेरे- मेरी आभा तुम को घेरे!...
शशि रजनी से कहता है, 'प्रेयसि, बोलो क्या जाऊँ?' कहता पतंग से दीपक, 'यह ज्वाला कहो बुझाऊँ?' तुम मुझ से पूछ रहे हो-'यह प्रणय-पाश अब खोलूँ?' इस को उदारता समझूँ-या वक्ष पीट कर रो लूँ!...
मैं ने देखी हैं झील में डोलती हुई कमल-कलियाँ जब कि जल-तल पर थिरक उठती हैं छोटी-छोटी लहरियाँ। ऐसे ही जाती है वह, हर डग से...
मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे : तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे? तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ- तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!...