तुम हँसी हो
तुम हँसी हो-जो न मेरे ओठ पर दीखे, मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है। धूप-मुझ पर जो न छायी हो, किन्तु जिस की ओर मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं। तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो, किन्तु मुझ को दूसरों से बाँधती है जो कि मेरी ही तरह इनसान हैं, आँख जिन से न भी मेरी मिले, जिन को किन्तु मेरी चेतना पहचानती है। धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिम्ब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका, किन्तु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का, अनकहा पर एक धमनी में बहा सन्देश मुझ तक ला सका, व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका। हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष, धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष।

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