नख शिख
तुम्हारी देह मुझ को कनक-चम्पे की कली है दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है। (रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई कुहासे-सी चेतना को मोह ले) तुम्हारे नैन पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित। (मानो विधाता के हृदय में जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित।) तुम्हारे ओठ- पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को मूक तकता रह सकूँ मैं- (सह सकूँ मैं ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)

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