कितनी शान्ति ! कितनी शान्ति !
कितनी शान्ति! कितनी शान्ति! समाहित क्यों नहीं होती यहाँ भी मेरे हृदय की क्रान्ति? क्यों नहीं अन्तर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी, अथिर यायावर, अचिर में चिर-प्रवासी नहीं रुकता, चाह कर-स्वीकार कर-विश्रान्ति? मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा, जगत् की उपलब्धियाँ सब हैं लुभानी भ्रान्ति! तुम्हें मैं ने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद- सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूँ तुम्हारा संवाद- बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहाँ साक्षात्? कौन-सी वह प्रात, जिस में खिल उठेगी- क्लिन्न, सूनी, शिशिर-भींगी रात? चला हूँ मैं, मुझे सम्बल रहा केवल बोध-पग-पग आ रहा हूँ पास; रहा आतप-सा यही विश्वास स्नेह से मृदु घाम से गतिमान रखता निविड मेरे साँस और उसाँस। आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें मैं ने किया है याद! किन्तु-सहसा हरहराते ज्वार-सा बढ़ एक हाहाकार प्राण को झकझोर कर दुर्वार, लील लेता रहा है मेरे अकिंचन कर्म-श्रम-व्यापार! झेल लें अनुभूति के संचित कनक का जो इक_ा भार- ऐसे कहाँ हैं अस्तित्व की इस जीर्ण चादर के इकहरी बाट के ये तार! गूँजती ही रही है दुर्दान्त एक पुकार- कहाँ है वह लक्ष्य श्रम का-विजय जीवन की-तुम्हारा प्रतिश्रुत वह प्यार! हरहराते ज्वार-सा बढ़ सदा आया एक हाहाकार! अहं! अन्तर्गुहावासी! स्व-रति! क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह? जानता क्या नहीं निज में बद्ध हो कर है नहीं निर्वाह? क्षुद्र नलकी में समाता है कहीं बेथाह मुक्त जीवन की सक्रिय अभिव्यंजना का तेज-दीप्त प्रवाह! जानता हूँ। नहीं सकुचा हूँ कभी समवाय को देने स्वयं का दान, विश्व-जन की अर्चना में नहीं बाधक था कभी इस व्यष्टि का अभिमान! कान्ति अणु की है सदा गुरु-पुंज का सम्मान। बना हूँ कर्ता, इसी से कहूँ-मेरी चाह, मेरा दाह, मेरा खेद और उछाह : मुझ सरीखी अगिन लीकों से, मुझे यह सर्वदा है ध्यान, नयी, पक्की, सुगम और प्रशस्त बनती है युगों की राह! तुम! जिसे मैं ने किया है याद, जिस से बँधी मेरी प्रीत- कौन तुम? अज्ञात-वय-कुल-शील मेरे मीत! कर्म की बाधा नहीं तुम, तुम नहीं प्रवृत्ति से उपराम- कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा-रुका मेरा काम? तुम्हें धारे हृदय में, मैं खुले हाथों सदा दूँगा बाह्य का जो देय- नहीं गिरने तक कहूँगा, 'तनिक ठहरूँ क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय!' तुम! हृदय के भेद मेरे, अन्तरंग सखा-सहेली हो, खगों-से उड़ रहे जीवन-क्षणों के तुम पटु बहेली हो, नियम भूतों के सनातन, स्फुरण की लीला नवेली हो, किन्तु जो भी हो, निजी तुम प्रश्न मेरे, प्रेय-प्रत्यभिज्ञेय! मेरा कर्म, मेरी दीप्ति, उद्भव-निधन, मेरी मुक्ति, तुम मेरी पहेली हो! तुम जिसे मैं ने किया है याद, जिस से बँधी मेरी प्रीत! लुभानी है भ्रान्ति-कितनी शान्ति! कितनी शान्ति!

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