रजनी ऊषा में हुई मूक
रजनी ऊषा में हुई मूक कुछ रो-रो कर, कुछ काँप-काँप; इस असह ज्योति से बचने को मैं ने मुख अपना लिया ढाँप! याचना मात्र से कैसे निधि पा लेगा जो था सदा क्षुद्र? युग-युग की प्यासी हो कर भी धूली क्या पी लेगी समुद्र! मैं झुकूँ, डुबाते बह जाओ ओ मेरे ही दुर्धर प्रवाह- हे अतुल! सोख लो अपने में मेरे उर का खद्योत दाह!

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