इस मन्दिर में तुम होगे क्या
इस मन्दिर में तुम होगे क्या? इन उपासकों से क्या मुझ को? ये तो आते ही रहते हैं। जहाँ देव के चरण छू सके-सौरभ-निर्झर ही बहते हैं। अब भी जीता पदस्पर्श? मुझ को यह बदला दोगे क्या? कितने वर्ष बाद आयी हूँ उन पर अपनी भेंट चढ़ाने! मैं चिर, विमुख, झुका कर मस्तक कालान्तर को आज भुलाने! क्या बोलूँ-यदि बोल भी सकूँ! तुम आदेश करोगे क्या? पीठ शून्य भी हो, आँखें क्यों करें न चरण-स्मृति का तर्पण! देव! देव! उर आरति-दीपक! यह लो मेरा मूक समर्पण! मेरी उग्र दिदृक्षा को माया से भी न वरोगे क्या? इस मन्दिर में तुम होगे क्या?

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