सरस्वती पुत्र
मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त, खुले गले से मुखर स्वरों में अति-प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम। भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक, निर्बोध, अयाने, नाटे, पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले। बाहर वह खोया-पाया, मैला-उजला दिन-दिन होता जाता वयस्क, दिन-दिन धुँधलाती आँखों से सुस्पष्ट देखता जाता था; पहचान रहा था रूप, पा रहा वाणी और बूझता शब्द, पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था: दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।

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