झील का किनारा
झील का निर्जन किनारा और वह सहसा छाए सन्नाटे का एक क्षण हमारा । वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा वैसी क्षितिज पर सहमी-सी बिजली वैसी कोई उत्ताल लहर और नहीं आई न वैसी मदिर बयार कभी चली । वैसी कोई शक्ति अकल्पित और अयाचित फिर हम पर नहीं छाई । वैसा कुछ और छली काल ने हमारे सटे हुए लिलारों पर नहीं लिखा । वैसा अभिसंचित, अभिमंत्रित, सघनतम संगोपन कल्पान्त दूसरा हमने नहीं जिया । वैसी शीतल अनल-शिखा न फिर जली, न चिर-काल पली, न हमसे सँभली । या कि अपने को उतना वैसा हमीं ने दुबारा फिर नहीं दिया ?

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