अचेतन मृत्ति, अचेतन शिला। रुक्ष दोनों के वाह्य स्वरूप, दृश्य - पट दोनों के श्रीहीन; देखते एक तुम्हीं वह रूप...
तुम कहते, ‘तेरी कविता में कहीं प्रेम का स्थान नहीं; आँखों के आँसू मिलते हैं; अधरों की मुसकान नहीं’।...
सब देते गालियाँ, बताते औरत बला बुरी है, मर्दों की है प्लेग भयानक, विष में बुझी छुरी है। और कहा करते, "फितूर, झगड़ा, फसाद, खूँरेज़ी, दुनिया पर सारी मुसीबतें इसी प्लेग ने भेजीं।"...
अभी तक कर पाई न सिंगार रास की मुरली उठी पुकार। गई सहसा किस रस से भींग वकुल-वन में कोकिल की तान?...
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो, एक पथ, बलि के लिए तैयार हो। फूँक दे सोचे बिना संसार को, तोड़ दे मँझधार जा पतवार को।...
जो जवानी में नहीं रोया, उसे बर्बर कहो, जो बुढ़ापे में न हँसता है, मनुज वह मूर्ख है। जब मैं था नवयुवक, वृद्ध शिक्षक थे मेरे, भूतकाल की कथा गूढ़ बतलाते थे वे।...
मैं पतझड़ की कोयल उदास, बिखरे वैभव की रानी हूँ मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।...
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। ...
गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है;...
खिली भू पर जब से तुम नारि, कल्पना-सी विधि की अम्लान, रहे फिर तब से अनु-अनु देवि! लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान।...
छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय, औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय। लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार, अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार।...
आँख मूँद कर छूता हूँ जब शिला-खण्ड को, मन कहता है आप ही आप, यह तथ्य है। आँख मूँद कर छूता हूँ जब नभ अखण्ड को, मन कहता है आप ही आप, यह सत्य है।...
मैं तुझे रोकता हूँ पल-पल, तू और खिंचा-सा जाता है, मन, जिसे समझता तू सुन्दर, उस जग से कब का नाता है? कुछ विस्मृत-सा परिचय है क्या जिससे बढ़ता है प्यार? कण-कण में कौन छिपा अपना जो मुझको रहा पुकार?...
व्योम में बाकी नहीं अब बदलियाँ हैं, मोह अब बाकी नहीं उम्मीद में, आह भरना भूल कर सोने लगा हूँ बन्धु! कल से खूब गहरी नींद में।...
मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी बालिका-जूही उमंग-भरी; विधु-रंजित ओस-कणों से भरी थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;...
अधखिले पद्म पर मौन खड़ी तुम कौन प्राण के सर में री? भीगने नहीं देती पद की अरुणिमा सुनील लहर में री?...
सारी आशाएँ न पूर्ण यदि होती हों, तब भी अंचल छोड़ नहीं आशाओं के। मर गया होता कभी का आपदाओं की कठिनतम मार से,...
दर्शन मात्र विचार, धर्म ही है जीवन। धर्म देखता ऊपर नभ की ओर, ध्येय दर्शन का मन। हमें चाहिए जीवन और विचार भी।...
मुक्त देश का यह लक्षण है मित्र! कष्ट अल्प, पर, शोर बहुत होता है। तानाशाही का पर, हाल विचित्र, जीभ बाँध जन मन-ही-मन रोता है।...
चाहता हूँ, मानवों के हेतु अर्पित आयु यह हो जाय। आयु यानी वायु जो छूकर सभी को शून्य विस्मृति-कोष में खो जाय।...
निस्सीम शक्ति निज को दर्पण में देख रही, तुम स्वयं शक्ति हो या दर्पण की छाया हो? तुम्हारी मुस्कुराहट तीर है केवल? धनुष का काम तो मादक तुम्हारा रूप करता है।...
रच फूलों के गीत मनोहर. चित्रित कर लहरों के कम्पन, कविते ! तेरी विभव-पुरी में स्वर्गिक स्वप्न बना कवि-जीवन।...
पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर मधु जी-भर पी ले; कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले।...
औरों को उपदेश सुनाना चुम्बन-सा ही है यह काम, खर्च नहीं इसमें कुछ पड़ता, मन को मीठा लगता है। आयु के दो भाग हैं, पहली उमर में आदमी रस-भोग में आनन्द लेता है।...
छिपा दिया है राजनीति ने बापू! तुमको, लोग समझते यही कि तुम चरखा-तकली हो। नहीं जानते वे, विकास की पीड़ाओं से वसुधा ने हो विकल तुम्हें उत्पन्न किया था।...
वृद्धि पर है कर, मगर, कल-कारखाने भी बढ़े हैं; हम प्रगति की राह पर हैं, कह रहा संसार है। किन्तु, चोरी बढ़ रही इतनी कि अब कहना कठिन है, देश अपना स्वस्थ या बीमार है।...
जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में; लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती, बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में।...
समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?...
कात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी; कात रही रुपहरे धाग दिनमणि की किरण किशोरी। घन का चरखा चला इन्द्र करते नव जीवन दान; तार-तार पर मैं काता करती इज्जत-सम्मान।...
समय तुरत क्यों हो जाता उड्डीन, प्रेमी का अभिनय जब हम करते हैं? और मंच क्यों हो जाता संकीर्ण, कभी सन्त का बाना यदि धरते हैं?...
करो वही जो तेरे मन का ब्रह्म कहे, और किसी की बातों पर कुछ ध्यान न दो। मुँह बिचकायें लोग अगर तो मत देखो, बजती हों तालियाँ, अगर तो कान न दो।...
ज्वर में सिर पर बर्फ रखा करते हैं, यही बहुत कुछ समझौते की शान्ति है। किन्तु, कभी क्या ज्वर भागा है बर्फ से? हिम को ज्वर की दवा समझना भ्रान्ति है।...
सिमट विश्व - वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में, देव! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में। कॉंटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग, किस सुलग्न में जगा प्रभो! यौवन का तीव्र विराग?...
कैसी रचना! कैसा विधान! हम निखिल सृष्टि के रत्न-मुकुट, हम चित्रकार के रुचिर चित्र, विधि के सुन्दरतम स्वप्न, कला...
जहाँ-जहाँ है फूल, वहाँ क्या साँप है? जहाँ-जहाँ है रूप, वहाँ क्या पाप है? शूलों में क्या है कि प्रेम से चुनते हो? पर, फूलों को देख शीश क्यों धुनते हो?...
अम्बर के गृह गान रे, घन-पाहुन आये। इन्द्रधनुष मेचक-रुचि-हारी, पीत वर्ण दामिनि-द्युति न्यारी, प्रिय की छवि पहचान रे, नीलम घन छाये।...