भ्रमरी
पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर मधु जी-भर पी ले; कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले। चूस-चूस मकरन्द हृदय का संगिनि? तू मधु-चक्र सजा, और किसे इतिहास कहेंगे ये लोचन गीले-गीले? लते? कहूँ क्या, सूखी डालों पर क्यों कोयल बोल रही? बतलाऊँ क्या, ओस यहाँ क्यो? क्यों मेरे पल्लव पीले? किसे कहूँ? धर धीर सुनेगा दीवाने की कौन व्यथा? मेरी कड़ियाँ कसी हुई, बाकी सबके बन्धन ढीले। मुझे रखा अज्ञेय अभी तक विश्व मुझे अज्ञेय रहा; सिन्धु यहाँ गम्भीर, अगम, सखि? पन्थ यहाँ ऊँचे टीले।

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