अगेय की ओर
गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है; बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन निज को कर दान चुका है। खो जाने को प्राण विकल है चढ़ उन पद-पद्मों के ऊपर; बाहु-पाश से दूर जिन्हें विश्वास हृदय का मान चुका है। जोह रहे उनका पथ दृग, जिनको पहचान गया है चिन्तन। गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। उछल-उछल बह रहा अगम की ओर अभय इन प्राणों का जल; जन्म-मरण की युगल घाटियाँ रोक रहीं जिसका पथ निष्फल। मैं जल-नाद श्रवण कर चुप हूँ; सोच रहा यह खड़ा पुलिन पर; है कुछ अर्थ, लक्ष्य इस रव का या ‘कुल-कुल, कल-कल’ ध्वनि केवल? दृश्य, अदृश्य कौन सत इनमें? मैं या प्राण-प्रवाह चिरन्तन? गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। जलकर चीख उठा वह कवि था, साधक जो नीरव तपने में; गाये गीत खोल मुँह क्या वह जो खो रहा स्वयं सपने में? सुषमाएँ जो देख चुका हूँ जल-थल में, गिरि, गगन, पवन में, नयन मूँद अन्तर्मुख जीवन खोज रहा उनको अपने में। अन्तर-वहिर एक छवि देखी, आकृति कौन? कौन है दर्पण? गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन। चाह यही छू लूँ स्वप्नों की नग्न कान्ति बढ़कर निज कर से; इच्छा है, आवरण स्रस्त हो गिरे दूर अन्तःश्रुति पर से। पहुँच अगेय-गेय-संगम पर सुनूँ मधुर वह राग निरामय, फूट रहा जो सत्य सनातन कविर्मनीषी के स्वर-स्वर से। गीत बनी जिनकी झाँकी, अब दृग में उन स्वप्नों का अंजन। गायक, गान, गेय से आगे मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।

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