नये सुभाषित / गाँधी
छिपा दिया है राजनीति ने बापू! तुमको, लोग समझते यही कि तुम चरखा-तकली हो। नहीं जानते वे, विकास की पीड़ाओं से वसुधा ने हो विकल तुम्हें उत्पन्न किया था। कौन कहता है कि बापू शत्रु थे विज्ञान के? वे मनुज से मात्र इतनी बात कहते थे, रेल, मोटर या कि पुष्पक-यान, चाहे जो रचो, पर, सोच लो, आखिर तुम्हें जाना कहाँ है। सत्य की संपूर्णता देती न दिखलाई किसी को, हम जिसे हैं देखते, वह सत्य का, बस, एक पहलू है। सत्य का प्रेमी भला तब किस भरोसे पर कहे यह मैं सही हूँ और सब जन झूठ हैं? चलने दो मन में अपार शंकाओं को तुम, निज मत का कर पक्षपात उनको मत काटो। क्योंकि कौन हैं सत्य, कौन झूठे विचार हैं, अब तक इसका भेद न कोई जान सका है। सत्य है सापेक्ष्य, कोई भी नहीं यह जानता है, सत्य का निर्णीत अन्तिम रूप क्या है? इसलिए, आदमी जब सत्य के पथ पर कदम धरता, वह उसी दिन से दुराग्रह छोड़ देता है। हम नहीं मारें, न दें गाली किसी को, मत कभी समझो कि इतना ही अलम है। बुद्धि की हिंसा, कलुष है, क्रूरता है कृत्य वह भी जब कभी हो क्रुद्ध चिंतन के धरातल पर हम विपक्षी के मतों पर वार करते हैं। शान्ति-सिद्धि का तेज तुम्हारे तन में है, खड्ग न बाँहों को न जीभ को व्याल करो। इससे भी ऊपर रहस्य कुछ मन में है, चिंतन करते समय न दृग को लाल करो। तुम बहस में लाल कर लेते दृगों को, शान्ति की यह साधना निश्छल नहीं है। शान्ति को वे खाक देंगे जन्म जिनकी जीभ संकोची, हृदय शीतल नहीं है। काम हैं जितने जरूरी, सब प्रमुख हैं, तुच्छ इसको औ’ उसे क्यों श्रेष्ठ कहते हो? मैं समझता हूँ कि रण स्वाधीनता का और आलू छीलना, दोनों बराबर हैं। लो शोणित, कुछ नहीं अगर यह आँसू और पसीना, सपने ही जब धधक उठें तब क्या धरती पर जीना? सुखी रहो, दे सका नहीं मैं जो कुछ रो-समझा कर, मिले तुम्हें वह कभी भाइयों-बहनों! मुझे गँवा कर। जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में; लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती, बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में। वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये, किरणों का बन्धन काट उन्हें उन्मुक्त किया, आँसुओं-पसीनों से न आग जब बुझ पायी, बापू! तुमने आखिर को अपना रक्त दिया। बापू! तुमने होम दिया जिसके निमित्त अपने को, अर्पित सारी भक्ति हमारी उस पवित्र सपने को। क्षमा, शान्ति, निर्भीक प्रेम को शतशः प्यार हमारा, उगा गये तुम बीज, सींचने का अधिकार हमारा। निखिल विश्व के शान्ति-यज्ञ में निर्भय हमीं लगेंगे, आयेगा आकाश हाथ में, सारी रात जगेंगे। बड़े-बड़े जो वृक्ष तुम्हारे उपवन में थे, बापू! अब वे उतने बड़े नहीं लगते हैं; सभी ठूँठ हो गये और कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी स्थितियों में खड़े नहीं लगते हैं। कुर्ता-टोपी फेंक कमर में भले बाँध लो पाँच हाथ की धोती घुटनों से ऊपर तक, अथवा गाँधी बनने के आकुल प्रयास में आगे के दो दाँत डाक्टर से तुड़वा लो। पर, इतने से मूर्तिमान गाँधीत्व न होता, यह तो गाँधी का विरूपतम व्यंग्य-चित्र है। गाँधी तब तक नहीं, प्राण में बहनेवाली वायु न जबतक गंधमुक्त, सबसे अलिप्त है। गाँधी तब तक नहीं, तुम्हारा शोणित जब तक नहीं शुद्ध गैरेय, सभी के सदृश लाल है। स्थान में संघर्ष हो तो क्षुद्रता भी जीतती है, पर, समय के युद्ध में वह हार जाती है। जीत ले दिक में “जिना”, पर, अन्त में बापू! तुम्हारी जीत होगी काल के चौड़े अखाड़े में। एक देश में बाँध संकुचित करो न इसको, गाँधी का कर्तव्य-क्षेत्र दिक नहीं, काल है। गाँधी हैं कल्पना जगत के अगले युग की, गाँधी मानवता का अगला उद्विकास हैं।

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