कस्मै देवाय
रच फूलों के गीत मनोहर. चित्रित कर लहरों के कम्पन, कविते ! तेरी विभव-पुरी में स्वर्गिक स्वप्न बना कवि-जीवन। छाया सत्य चित्र बन उतरी, मिला शून्य को रूप सनातन, कवि-मानस का स्वप्न भूमि पर बन आया सुरतरु-मधु-कानन। भावुक मन था, रोक न पाया, सज आये पलकों में सावन, नालन्दा-वैशाली के ढूहों पर, बरसे पुतली के घन। दिल्ली को गौरव-समाधि पर आँखों ने आँसू बरसाये, सिकता में सोये अतीत के ज्योति-वीर स्मृति में उग आये। बार-बार रोती तावी की लहरों से निज कंठ मिलाकर, देवि ! तुझे, सच, रुला चुका हूँ सूने में आँसू बरसा कर। मिथिला में पाया न कहीं, तब ढूँढ़ा बोधि-वृक्ष के नीचे, गौतम का पाया न पता, गंगा की लहरों ने दृग मीचे। मैं निज प्रियदर्शन अतीत का खोज रहा सब ओर नमूना, सच है या मेरे दृग का भ्रम? लगता विश्व मुझे यह सूना। छीन-छीन जल-थल की थाती संस्कृति ने निज रूप सजाया, विस्मय है, तो भी न शान्ति का दर्शन एक पलक को पाया। जीवन का यति-साम्य नहीं क्यों फूट सका जब तक तारों से तृप्ति न क्यों जगती में आई अब तक भी आविष्कारों से? जो मंगल-उपकरण कहाते, वे मनुजों के पाप हुए क्यों? विस्मय है, विज्ञान बिचारे के वर ही अभिशाप हुए क्यों? घरनी चीख कराह रही है दुर्वह शस्त्रों के भारों से, सभ्य जगत को तृप्ति नहीं अब भी युगव्यापी संहारों से। गूँज रहीं संस्कृति-मंडप में भीषण फणियों की फुफकारें, गढ़ते ही भाई जाते हैं भाई के वध-हित तलवारें। शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का आज रुधिर से लाल हुआ है, किरिच-नोक पर अवलंबित व्यापार, जगत बेहाल हुआ है। सिर धुन-धुन सभ्यता-सुंदरी रोती है बेबस निज रथ में, "हाय ! दनुज किस ओर मुझे ले खींच रहे शोणित के पथ में?" दिक्‌-दिक्‌ में शस्त्रों की झनझन, धन-पिशाच का भैरव-नर्त्तन, दिशा-दिशा में कलुष-नीति, हत्या, तृष्णा, पातक-आवर्त्तन! दलित हुए निर्बल सबलों से मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र जन, आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित-शोषण। क्रांति-धात्रि कविते! जागे, उठ, आडम्बर में आग लगा दे, पतन, पाप, पाखंड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे। विद्युत की इस चकाचौंध में देख, दीप की लौ रोती है। अरी, हृदय को थाम, महल के लिए झोंपड़ी बलि होती है। देख, कलेजा फाड़ कृषक दे रहे हृदय शोणित की धारें; बनती ही उनपर जाती हैं वैभव की ऊंची दीवारें। धन-पिशाच के कृषक-मेध में नाच रही पशुता मतवाली, आगन्तुक पीते जाते हैं दीनों के शोणित की प्याली। उठ भूषण की भाव-रंगिणी! लेनिन के दिल की चिनगारी! युग-मर्दित यौवन की ज्वाला ! जाग-जाग, री क्रान्ति-कुमारी! लाखों क्रौंच कराह रहे हैं, जाग, आदि कवि की कल्याणी? फूट-फूट तू कवि-कंठों से बन व्यापक निज युग की वाणी। बरस ज्योति बन गहन तिमिर में, फूट मूक की बनकर भाषा, चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन, उमड़ गरीबी की बन आशा। गूँज, शान्ति की सुकद साँस-सी कलुष-पूर्ण युग-कोलाहल में, बरस, सुधामय कनक-वृष्टि-सी ताप-तप्त जग के मरुथल में। खींच मधुर स्वर्गीय गीत से जगती को जड़ता से ऊपर, सुख की सरस कल्पना-सी तू छा जाये कण-कण में भू पर। क्या होगा अनुचर न वाष्प हो, मैं न अहित मानूँगा, चाहे मुझे न नभ के पन्थ चलाना। तमसा के अति भव्य पुलिन पर, चित्रकूट के छाया-तरु तर, कहीं तपोवन के कुंजों में देना पर्णकुटी का ही घर। जहाँ तृणों में तू हँसती हो, बहती हो सरि में इठलाकर, पर्व मनाती हो तरु-तरु पर तू विहंग-स्वर में गा-गाकर। कन्द, मूल, नीवार भोगकर, सुलभ इंगुदी-तैल जलाकर, जन-समाज सन्तुष्ट रहे हिल-मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर। धर्म-भिन्नता हो न, सभी जन शैल-तटी में हिल-मिल जायें; ऊषा के स्वर्णिम प्रकाश में भावुक भक्ति-मुग्ध-मन गायें, "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्‌, स दाधार पृथिवीं द्यामुतेर्माम्‌ कस्मै देवाय हविषा विधे म?"

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