समर निंद्य है / भाग १
समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो। सच है सत्ता सिमट-सिमट जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई ? जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी, जहाँ सूत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी; जहाँ खड्ग-बल एकमात्र आधार बने शासन का; दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का;

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