अतीत के द्वार पर
'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार मेरे अतीत ओ अभिमानी! बाहर खड़ी लिये नीराजन कब से भावों की रानी! बहुत बार भग्नावशेष पर अक्षत-फूल बिखेर चुकी; खँडहर में आरती जलाकर रो--रो तुमको टेर चुकी। वर्तमान का आज निमंत्रण, देह धरो, आगे आओ; ग्रहण करो आकार देवता! यह पूजा-प्रसाद पाओ। शिला नहीं, चैतन्य मूर्ति पर तिलक लगाने मैं आई; वर्तमान की समर-दूतिका, तुम्हें जगाने मैं आई। कह दो निज अस्तमित विभा से, तम का हृदय विदीर्ण करे; होकर उदित पुनः वसुधा पर स्वर्ण-मरीचि प्रकीर्ण करे। अंकित है इतिहास पत्थरों पर जिनके अभियानों का चरण - चरण पर चिह्न यहाँ मिलता जिनके बलिदानों का; गुंजित जिनके विजय-नाद से हवा आज भी बोल रही; जिनके पदाघात से कम्पित धरा अभी तक डोल रही। कह दो उनसे जगा, कि उनकी ध्वजा धूल में सोती है; सिंहासन है शून्य, सिद्धि उनकी विधवा--सी रोती है। रथ है रिक्त, करच्युत धनु है, छिन्न मुकुट शोभाशाली, खँडहर में क्या धरा, पड़े, करते वे जिसकी रखवाली? जीवित है इतिहास किसी--विधि वीर मगध बलशाली का, केवल नाम शेष है उनके नालन्दा, वैशाली का। हिमगह्वर में किसी सिंह का आज मन्द्र हुंकार नहीं, सीमा पर बजनेवाले घौंसों की अब धुंधकार नहीं! बुझी शौर्य की शिखा, हाय, वह गौरव - ज्योति मलीन हुई, कह दो उनसे जगा, कि उनकी वसुधा वीर - विहीन हुई। बुझा धर्म का दीप, भुवन में छाया तिमिर अहंकारी; हमीं नहीं खोजते, खोजती उसे आज दुनिया सारी। वह प्रदीप, जिसकी लौ रण में पत्थर को पिघलाती है; लाल कीच के कमल, विजय, को जो पद से ठुकराती है। आज कठिन नरमेघ! सभ्यता ने थे क्या विषधर पाले! लाल कीच ही नहीं, रुधिर के दौड़ रहे हैं नद - नाले। अब भी कभी लहू में डूबी विजय विहँसती आयेगी, किस अशोक की आँख किन्तु, रो कर उसको नहलायेगी? कहाँ अर्द्ध - नारीश वीर वे अनल और मधु के मिश्रण? जिनमें नर का तेज प्रबल था, भीतर था नारी का मन? एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल, जितना कठिन खड्ग था कर में, उतना ही अन्तर कोमल। स्थूल देह की विजय आज, है जग का सफल बहिर्जीवन; क्षीण किन्तु, आलोक प्राण का, क्षीण किन्तु, मानव का मन। अर्चा सकल बुद्धि ने पायी, हृदय मनुज का भूखा है; बढ़ी सभ्यता बहुत, किन्तु, अन्तःसर अब तक सूखा है। यंत्र - रचित नर के पुतले का बढ़ा ज्ञान दिन - दिन दूना; एक फूल के बिना किन्तु, है-- हृदय - देश उसका सूना। संहारों में अचल खड़ा है धीर, वीर मानव ज्ञानी, सूखा अन्तःसलिल, आँख में आये क्या उसके पानी? सब कुछ मिला नये मानव को, एक न मिला हृदय कातर; जिसे तोड़ दे अनायास ही करुणा की हलकी ठोकर। ’जय हो’, यंत्र पुरुष को दर्पण एक फूटनेवाला दो; हृदयहीन के लिए ठेस पर हृदय टूटनेवाला दो। दो विषाद, निर्लज्ज मनुज यह ग्लानिमग्न होना सीखे; विजय - मुकुट रुधिराक्त पहनकर हँसे नहीं, रोना सीखे। दावानल - सा जला रहा नर को अपना ही बुद्धि - अनल; भरो हृदय का शून्य सरोवर, दो शीतल करुणा का जल। जग में भीषण अन्धकार है, जगो, तिमिर - नाशक, जागो, जगो मंत्र - द्रष्टा, जगती के गौरव, गुरु, शासक, जागो। गरिमा, ज्ञान, तेज, तप, कितने सम्बल हाय, गये खोये; साक्षी है इतिहास, वीर, तुम कितना बल लेकर सोये। ’जय हो’ खोलो द्वार, अमृत दो, हे जग के पहले दानी! यह कोलाहल शमित करेगी किसी बुद्ध की ही बानी।

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