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वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है...

नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना...

कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी सहरा की तिश्नगी थी सो दरिया शराब पी अपनों ने तज दिया है तो ग़ैरों में जा के बैठ ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब न तन्हा शराब पी...

किसी ने कहा : स्वर्ग यहीं है मैंने कहा : हाँ-- क्योंकि आदमी मर चुका है और अब स्वर्ग यहीं है।...

सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ'ज़ हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती...

कौन था वह युगल जो गलती-ठिठुरती यामिनी में जबकि कैम्ब्रिज श्रांत,विस्मृत-जड़ित होकर ...

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना। मैंने तो हर तार तुम्हारे हाथों में, प्रिय, सौंप दिया है काल बताएगा यह मैंने...

बच्चे रब्ब तों दो ही मंगे कसम खुदा दी रह गए चंगे । वड्डा जद साडे घर आया पलने पायआ, पट्ट हंढायआ...

उस से हर-दम मोआ'मला है मगर दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं...

पहले तो मुझे कहा निकालो फिर बोले ग़रीब है बुला लो...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...