Discover Poetry
मेरी निगह के रह पे फ़र्ख़ंदा फ़ाल चल है रोज़-ए-ईद आज ऐ अबरू हिलाल चल तेरी नयन की दीद कूँ ऐ नूर-ए-हर नज़र शक नईं अगर ख़तन सिती आवें ग़ज़ाल चल...
ख़ल्वत-ओ-जल्वत में तुम मुझ से मिली हो बार-हा तुम ने क्या देखा नहीं मैं मुस्कुरा सकता नहीं मैं कि मायूसी मिरी फ़ितरत में दाख़िल हो चुकी जब्र भी ख़ुद पर करूँ तो गुनगुना सकता नहीं...
ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर आख़िर इक दिन सूरत ये सब मिट्टी में मिल जाएगी...
भव-अर्णव की तरुणी तरुणा । बरसीं तुम नयनों से करुणा । हार हारकर भी जो जीता,-- सत्य तुम्हारी गाई गीता,--...
यदि मदिरा मिलती हो तुझको व्यर्थ न कर, मन, पश्चाताप, सौ सौ वंचक तुझको घेरे करें भले ही आर्त प्रलाप!...
दीदी के धूल भरे पाँव बरसों के बाद आज फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव; अगहन की कोहरीली भोर:...
बातें तो कुछ ऐसी हैं कि ख़ुद से भी न की जाएँ सोचा है ख़मोशी से हर इक ज़हर को पी जाएँ अपना तो नहीं कोई वहाँ पूछने वाला उस बज़्म में जाना है जिन्हें अब तो वही जाएँ...
सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ धूप गोया शहर के सारे घरों को जोड़ देती है ग़ौर से देखें अगरचे...
Recent Updates
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...