गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी कहाँ ग़ुंचा कहाँ उस का दहन तंग बढ़ाई शायरों ने बात थोड़ी उठे क्या ज़ानू-ए-ग़म से सर अपना बहुत गुज़री रही हैहात थोड़ी ख़याल-ए-ज़ब्त-ए-गिर्या है जो हम को बहुत इमसाल है बरसात थोड़ी पिलाए ले के नक़द-ए-होश साक़ी तही-दस्तों की है औक़ात थोड़ी वही है आसमाँ पर गंज-ए-अंजुम मिली थी जो तिरी ख़ैरात थोड़ी तिरा ऐ दुख़्त-ए-रज़ वासिफ़ है वाइज़ पए-हुर्मत है इतनी बात थोड़ी चलो मंज़िल 'अमीर' आँखें तो खोलो निहायत रह गई है रात थोड़ी

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