हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शमाइल ठहरा
हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा की नज़र रू-ए-किताबी पे तो कुछ दिल ठहरा मक्तब-ए-शौक़ भी क़ुरआन की मंज़िल ठहरा निगहत-ए-गुल से परेशान हुआ उस का दिमाग़ ख़ंदा-ए-गुल न हुआ शोर-ए-अनादिल ठहरा नज्द से क़ैस जो आया मरे ज़िंदाँ की तरफ़ देर तक गोश-बर-आवाज़-ए-सलासिल ठहरा हुस्न जिस तिफ़्ल का चमका वो हुआ बाइस-ए-क़त्ल जिस ने तलवार सँभाली मिरा क़ातिल ठहरा ख़त जो निकला रुख़-ए-जानाँ पे मिला बोसा-ए-ख़ाल यही दाना फ़क़त इस किश्त का हासिल ठहरा अलम इक नुक़्ता जो मशहूर था ऐ जोश-ए-जुनूँ ग़ौर से की जो नज़र नुक़्ता-ए-बातिल ठहरा दूर जब तक थे तड़पता था में कैसा कैसा पास आ कर वो जो ठहरे तो मिरा दिल ठहरा कसरत-ए-दाग़ से गुल-दस्ता बना दिल तो क्या ज़ीनत-ए-बाग़ न आराइश-ए-महफ़िल ठहरा दौड़ता क़ैस भी आता है निहायत ही क़रीब इक ज़रा नाक़े को ऐ साहिब-ए-महमिल ठहरा दम जो बेताब था मुद्दत से मिरे सीने में तेग़-ए-क़ातिल के तले कुछ दम-ए-बिस्मिल ठहरा हम बड़ी दूर से आए हैं तुम्हारा है ये हाल घर से दरवाज़े तक आना कई मंज़िल ठहरा अब तक आती है सदा तुर्बत-ए-लैला से 'अमीर' सारबान अब तो ख़ुदा के लिए महमिल ठहरा

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