अब हेमंत अंत नियराया, लौट न आ तू, गगन-बिहारी।
खोल उषा का द्वार झाँकती
बाहर फिर किरणों की जाली,
अंबर की डयोढ़ी पर अटकी
रहती फिर संध्या की लाली,
राह तुझे देने को कटते,
छटते, हटते नभ से बादल,
अब हेमंत अंत नियराया, लौट न आ तू, गगन-बिहारी।
जिन सूनी, सूखी साखों में
होता तू दिन एक गया था,
मुझको था मालूम कि उनको
मिलने को पहराव नया था,
नई-नई कोमल कोंपल से
लदी खड़ी हैं तरु-मालाएँ,
फूट कहीं से पड़ने को है सहसा कोयल की किलकारी।
अब हेमंत अंत नियराया, लौट न आ तू, गगन-बिहारी।