अरे कहीं देखा है तुमने मुझे प्यार करने वालों को? मेरी आँखों में आकर फिर आँसू बन ढरने वालों को?...
जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करूणा नौका पार लगाती है जयति महासंगीत ! विश्व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है कादम्िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है...
कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा भीग रहा है नीरद अमने नीर से मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में...
प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी...
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी मनोहर झरना। कठिन गिरि कहाँ विदारित करना ...
सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा...
नदी की विस्तृत वेला शान्त, अरुण मंडल का स्वर्ण विलास; निशा का नीरव चन्द्र-विनोद, कुसुम का हँसते हुए विकास।...
जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन - गीत सुना जाओ...
नव-नील पयोधर नभ में काले छाये भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये लहराती ललिता लता सुबाल लजीली लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली ...
थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! और उस दिन तो; निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से...
आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला...
दूर हटे रहते थे हम तो आप ही क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते- हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया...
मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी, मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज धनि. इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास- यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास....
मेरी आँखों की पुतली में तू बन कर प्रान समां जा रे ! जिससे कण कण में स्पंदन हों, मन में मलायानिल चंदन हों,...
पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा...
तिरस्कार कालिमा कलित हैं, अविश्वास-सी पिच्छल हैं। कौन कसौटी पर ठहरेगा? किसमें प्रचुर मनोबल है?...
हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी...
अपलक जगती हो एक रात! सब सोये हों इस भूतल में, अपनी निरीहता संबल में, चलती हों कोई भी न बात!...
जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हों, पिता परम अविनाशी हो दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली...
हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; बरसता हैं मलयज मकरन्द। स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द, खेलता शिशु होकर आनन्द।...
आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला। कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? - न हो भीड़ का जब रेला॥ दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ। दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला।...
जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद वैध क्रम संयम को धिक्कार अरे तुम केवल मनोविकार...
कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा, वृक्ष-पत्र की मधु छाया में। लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं, अमृत सदृश नश्वर काया में।...
दिनकर अपनी किरण-स्वर्ण से रंजित करके पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती ...
थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता...
अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा इस शुभ सत्ता को जिसमे अनुभूत किया था मानवता को सदय राम का रूप दिया था...
जलता है यह जीवन पतंग जीवन कितना? अति लघु क्षण, ये शलभ पुंज-से कण-कण, तृष्णा वह अनलशिखा बन...
काली आँखों का अंधकार जब हो जाता है वार पार, मद पिए अचेतन कलाकार उन्मीलित करता क्षितित पार-...
प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ...
कोमल कुसुमों की मधुर रात ! शशि - शतदल का यह सुख विकास, जिसमें निर्मल हो रहा हास, उसकी सांसो का मलय वात !...
इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान, आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान। मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम, तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम।...
जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है...
धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को, अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को। गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था, कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था।...
"ले लो यह शस्त्र है गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं -- अब तो ना लेश मात्र लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का ...
हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का...
चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है ...
नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी...
जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली। अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला। निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका, बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी।...
करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं...
दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो...