मर्म-कथा
प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो- ‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’ नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी कथा बीती है, हे प्राण ! नई जितनी व्यथा मेरा चुप रहना बुलवावेगा तुम्हें मैं न कहूँगा, वह समझावेगा तुम्हें जितना चाहो, शान्त बनो, गम्भीर हो खुल न पड़ो, तब जानेंगे, तुम धीर हो रूखे ही तुम रहो, बूँद रस के झरें हम-तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें

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