भक्तियोग
दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं सुख के सभी साथी दिखाते है अहो संसार में हो डूबता उसको बचाने कौन जाता धार में कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से छोटी लहरियाँ उठ रही थी आन्तरिक आहृलाद से पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो सरिता बनी माया उसे कहती कि ‘तुम अनुरक्त हो’ वे वन्य वीरूध कुसुम परिपूरित भले थे खिल रहे कुछ पवन के वश में हुए आनन्द से थे खिल रहे देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पूरित भाव—मानस का भरा उन अश्रुकण में एक भी उनमें न इस भव से डरा वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा था बुद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द-सा था खिल रहा वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुंजार करता मिल रहा प्रतिक्षण लहर ले बढ़ रहे थे भाव-निधि में वेग से इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से प्रति श्‍वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को परमाणु भी सब स्तब्ध थे, रोमांच भी था हो रहा था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा आनन्द था उपलब्ध की सुख-कल्पना मे मिल रहा कुछ दुःख भी था देर होने से वही अनमिल रहा दुष्प्राप्य की ही प्राप्ति में हाँ बद्ध जीवनमुक्त था कहिये उसे हम क्या कहें, अनुरक्त था कि विरक्त था कुछ काल तक वह जब रहा ऐसे मनोहर ध्यान में आनन्द देती सुन पड़ी मंजीर की ध्वनि कान में नव स्वच्छ सन्ध्या तारका में से अभी उतरी हुई उस भक्त के ही सामने आकर खड़ी पुतरी हुई वह मुर्त्ति बोल-‘भक्तवर! क्यों यह परिश्रम हो रहा क्यों विश्‍व का आनन्द-मंदिर आह! तू यों खो रहा यह छोड़कर सुख है पड़ा किसके कुहक के जाल में सुख-लेख मैं तो पढ़ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल में सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले हाथ में संसार यह सब सौंपना है चाहता तव हाथ में फिर भागते हो क्यों ? न हटता यो कभी निर्भीक है संसार तेरा कर रहा है स्वागत, चलो, सब ठीक है उन्नत हुए भ्रू-युग्म फिर तो बंक ग्रीवा भी हुई फिर चढ़ गई आपादमस्तक लालिमा दौड़ी हुई ‘है सत्य सुन्दरि ! तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा’ आनन्द के विह्वल हुए-से भक्त ने खुलकर कहा ‘जब ये हमारे है, भला किस लिये हम छोड़ दें दुष्प्राप्य को जो मिल रहा सुख-सुत्र उसको तोड़ दें जिसके बिना फीके रहें सारे जगत-सुख-भोग ये उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये उस ध्यान के दो बूँद आँसू ही हृदय-सर्वस्व हैं जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख-दुःख यह सब कुछ नहीं केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसाता है कभी जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें हम रूठते उससे कभी, फिर भी मनाता है हमें हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनें मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने आनन्द आसन पर सुधा-मन्दाकिनी में स्नात हो हम और वह बैठे हए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो यह दे ईर्ष्‍या हो रही है, सुन्दरी ! तुमको अभी दिन बीतने दो दो कहाँ, फिर एक देखोगी कभी फिर यह हमारा हम उसी के, वह हमीं, हम वह हुए तब तुम न मुझसे भिन्न हो, सब एक ही फिर हो गये यह सुन हँसी वही मूर्ति करूणा की हुई कादम्बिनी फिर तो झड़ी-सी लग गई आनन्द के जल की घनी

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