रजनीगंधा
दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर करता है गुंजार पान करके रस मधुकर देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती लज्जावती मनोज्ञ लता का दृष्य दिखाती मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में ‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका

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