दर्शन
जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली। अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला। निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका, बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी। वंशी की स्वर लहरी नीरव व्योम में- गूँज रही हैं, परिमल पूरित पवन भी- खेल रहा हैं जल लहरी के संग में। प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम में- बहकाती हैं, और नदी उस ओर ही- बहती हैं। खिड़की उस ऊँचे महल की- दूर दिखाई देती हैं, अब क्यों रूके- नौका मेरी, द्विगुणित गति से चल पड़ी। किन्तु किसी के मुख की छवि-किरणें घनी, रजत रज्जु-सी लिपटी नौका से वहीं, बीच नदी में नाव किनारे लग गई। उस मोहन मुख का दर्शन होने लगा।

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