प्रलय की छाया
थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! और उस दिन तो; निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ। दूरागत वंशी रव गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से। मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें उसे उकसाने को-हँसाने को। पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से कस्तरी मृग जैसी। पश्चिम जलधि में, मेरी लहरीली नीली अलकावली समान लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको, और साँस लेता था संसार मुझे छुकर। नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी। मेरे तो, चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से। हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में नत शिर देख मुझे। कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में, पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती। नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती। नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी चरण अलक्तक की लाली से जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को। कितनी मादकता थी? लेने लगी झपकी मैं सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती; जिसमें थी आशा अभिलाषा से भरी थी जो कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी। "आँखे खुली; देखा मैने चरणों में लोटती थी विश्व की विभव-राशि, और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी। वह एक सन्ध्या था।" "श्यामा सृष्टि युवती थी तारक-खचिक नीलपट परिधान था अखिल अनन्त में चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी बहती थी धीरे-धीरे सरिता उस मधु यामिनी में मदकल मलय पवन ले ले फूलों से मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था। चाँदनी के अंचल में। हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा। सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको तारिकाएँ झाँकती थी। शत शतदलों की मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में बहाती लावण्य धारा। स्मर शशि किरणें स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर। अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के, तिरते थे मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में। पीते मकरन्द थे मेरे इस अधखिले आनन सरोज का कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था? खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।" "और परिवर्तन वह! क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई नीले मेघ माला-सी नियति-नटी थी आई सहसा गगन में तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।" "पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन; उन्नत हुआ था भाल महिला-महत्त्व का। दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का ऊर्जित आलोक आँख खोलता था सबकी। सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ जीवन का अपने भविष्य नये सिर से; उसी दिन बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता। देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से। मै भी थी कमला, रूप-रानी गुजरात की। सोचती थी पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी वह दवानल ज्वाला जिसमें सुलतान जले। देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध। आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी? स्पर्द्धा थी रूप की पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी, मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के सन्मुख नगण्य थी। देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का तुलना कर उससे, मैने समझा था यही। वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की फिर भी कुछ कम थी। किन्तु था हृदय कहाँ? वैसा दिव्य अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की लधुता चली थी माप करने महत्त्व की। "अभिनय आरम्भ हुआ अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे। नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात किसको प्रमत्त नहीं करते धैर्य किसका नहीं हरते ये? वही अस्त्र मेरा था। एक झटके में आज गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो। क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा दावानल बनकर हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का। बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की आर्तवाणी, क्रन्दन रमणियों का, भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा होने लगा गुर्जर में। अट्टहास करती सजीव उल्लास से फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में। वही कमला हूँ मैं! देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में, मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे बाधा, विध्न, आपदाएँ, अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती हँसते वे देख मुझे मै भी स्मित करती। किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में? संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में छोड़ना पड़ा ही उसे। निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे, किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था। "वह दुपहरी थी, लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली। थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा। मेरे गुर्ज्जरेश ! आज किस मुख से कहूँ? सच्चे राजपूत थे, वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में दूर वे चले गये, और हुई बन्दी मै। वाह री नियति! उस उज्जवल आकाश में पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर व्यंग्य-हास करती थी। एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर आज भी नचाता वही, आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती- "अनुकरण कर मेरा" समझ सकी न मैं। पद्मिनी की भूल जो थी समझने को सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर सन्मुख सुलतान के मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई। उस अभिमान में मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे - "ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ" वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी! कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था? उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का। रूप यह! देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ? बन्दिनी मैं बैठी रही देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी। यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की एक छलना-सी, सजने लगी थी सन्ध्या में। कृष्णा वह आई फिर रजनी भी। खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में । जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में! कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति क्षणभर चाहती जगाना मैं सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में, नारी मैं! कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की! साहस उमड़ता था वेग-पूर्-ओघ-सा किन्तु हलकी थी मैं, तृण बह जाता जैसे वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती। कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की इस मेरे रूप की। आज साक्षात होगा कितने महीनों पर लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी पहुँची समीप सुलतान के। तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा मेरे ही घुटनों पर, किन्तु अविचल रही। मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो चमकी वह सहसा मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को। किन्तु छिन गई वह और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी, अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती। अन्त करने का और वहीं मर जाने का मेरा उत्साह मन्द हो चला। उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं- "जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।" चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो "जीवन अनन्त हैं, इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?" जीवन की सीमामयी प्रतिमा कितनी मधुर हैं? विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही। कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:- अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी, माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से। व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से भोर में ही माँगता हैं "जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी। जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य है।" रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई "मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम? मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो और मैं हूँ बन्दिनी। राज्य हैं बचा नहीं, किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं इतनी मैं रिक्त हूँ ?" क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही। शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में। "देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का एक गीत-भार हैं! रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में पद्मिमी को खो दिया हैं किन्तु तुमको नहीं! शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर निज कोमलता से-मानस की माधुरी से! आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम ठहरो विश्राम करों।" अति द्रुत गति से कब सुलतान गये जान सकी मैं न, और तब से यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा। "एक दिन, संध्या थी; मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से। यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में, करुण विषाद मयी बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी। बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से। सामने था शैशव से अनुचर मानिक युवक अब खिंच गया सहसा पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने। जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से। मैने कहा:- "कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?" "मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में आ गया हूँ रानी! -भला कैसे मैं न आता यहाँ?" कह, वह चुप था। छूरे एक हाथ में दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ। सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े, और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में । "मृत्युदंड!" वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम मरता है मानिक! गूँज उठा कानों में- "जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।" उठी एक गर्व-सी किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में "उसे छोड़ दीजिए" - निकल पडा मुँह से। हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में। प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था? अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए कहा सुलतान ने- "जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।" हाय रे हृदय! तूने कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष और आकाश को पकड़ने की आशा में हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में। "अन्तर्निहित था लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में जीवन की दीनता में और पराधीनता में पलने लगीं वे चेतना के अनजान में। धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती; चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की। किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते मेरे संवेदनो को। यामिनी के गूढ़ अन्धकार में सहसा जो जाग उठे तारा से दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर। बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं शासन की कामना में झूमी मतवाली हो। एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का कितना अर्जित था? जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव! भेजा संदेश मुझे "शीध्र अन्त कर दो जीवन की लीला।" लालसा की अर्द्ध कृति-सी! उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ जीवित स्वयं हैं। जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में? बन्दिनी हुई मैं अबला थी; प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका? प्रेम कहाँ मेरा था? और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था। मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को। रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की, वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता भारतेश्वरी का पद लेने को। लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी चिर पराजित सुलतान पद तल में। कृष्णागुरुवर्तिका जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में एक धूम-रेखा मात्र शेष थी, उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में क्षीणगन्ध निरवलम्ब। किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं! यह उपहार हैं, शृंगार हैं। मेरा रूप माधुरी का। मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का आज विजयी था रूप और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर। अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते । जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे भवें बल खाती जब; लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द। रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी। इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा चलता था- हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर मंजु मीन-केतन अनंग का। मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में। हर में सुलतान की देखती सशंक दृग कोरों से निज अपमान को।" "बेच दिया विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे; उसी मानवता के आत्म सम्मान को।" जीवन में आता हैं परखने का जिसे कोई एक क्षण, लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के उग्र कोलाहल में, जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती। सोचा था उस दिन: जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने, अन्त किया छल से काफूर ने अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का। आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए प्राणी राज-वंश के मारे गये। वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी। शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं और फिर बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं? इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की। जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने; आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए; अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट। अन्त कर दास राजवंश का, लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का मानिक ने, खुसरु के नाम से शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं। उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति मैं हूँ किस तल पर? सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ मैं जो करने थी आई उसे किया मानिक ने। खुसरु ने!! उद्धत प्रभुत्व का वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह! "नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं। जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए, अपना अस्तित्व हैं पुकारते, नश्वर संसार में ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।" "लूटा था दृप्त अधिकार में जितना विभव, रूप, शील और गौरव को आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है! एक माया-स्पूत-सा हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।" देख कमलावती। ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की। हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में । ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में वेग भरी वासना अन्तक शरभ के काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से। पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का- गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा असफल सृष्टि सोती- प्रलय की छाया में।

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