असंतोष
हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द; बरसता हैं मलयज मकरन्द। स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द, खेलता शिशु होकर आनन्द। क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल; उसी में मानव जाता भूल। नील नभ में शोभन विस्तार, प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार। नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ। जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति, स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति। प्रणय की महिमा का मधु मोद, नवल सुषमा का सरल विनोद, विश्व गरिमा का जो था सार, हुआ वह लघिमा का व्यापार। तुम्हारा मुक्तामय उपहार हो रहा अश्रुकणों का हार। भरा जी तुमको पाकर भी न, हो गया छिछले जल का मीन। विश्व भर का विश्वास अपार, सिन्धु-सा तैर गया उस पार। न हो जब मुझको ही संतोष, तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष?

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