धर्मनीति
जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद वैध क्रम संयम को धिक्कार अरे तुम केवल मनोविकार वाँधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित नीति भग्न हो उसका कुटिल प्रभाव, धर्म वह फैलावेगा भीति भीति का नाशक हो तब धर्म नहीं तो रहा लुटेरा-कर्म दुखी है मानव-देव अधीर-देखकर भीषण शान्त समुद्र व्यथित बैठा है उसके तीर- और क्या विष पी लेगा रूद्र करेगा तब वह ताण्डव-नृत्य अरे दुर्बल तर्कों के भृत्य गुंजरित होगा श्रृंगीनाद, धूसरित भव बेला में मन्द्र कँपैंगे सब सूत्रों के पाद, युक्तियाँ सोवेंगी निस्तन्द्र पंचभूतों को दे आनन्द तभी मुखरित होगा यह छन्द दूर हों दुर्बलता के जाल, दीर्घ निःश्वासों का हो अन्त नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिगन्त तुम्हारा यौवन रहा ललाम नम्रते ! करूणे ! तुझे प्रणाम

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