जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में...
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है...
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिये पर है उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से...
महेज़ तनख़्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाइ के हज़ारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंगरूम में देखो जो टी० वी० का नया सेट है रखा ऊपर तिपाई के...
जिस्म की भूख कहें या हवस का ज्वार कहें सतही जज़्बे को मुनासिब नहीं है प्यार कहें बारहा फ़र्द की अज़्मत ने जिसे मोड़ दिया हम भला कैसे उसे वक़्त की रफ़्तार कहें...
जो 'डलहौजी' न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे सुरा औ' सुन्दरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर ये दिल्ली को रँगीलेशाह का हम्माम कर देंगे...
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की...
ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है उससे मिलने को कई मोड़ से गुज़रना है अभी तो आग के दरिया में भी उतरना है...
जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में ...
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को। सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए, गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को।...
'अदम' सुकून में जब कायनात होती है, कभी-कभार मेरी उससे बात होती है। कहीं हो ज़िक्र अक़ीदत से सर झुका देना, बड़ी अज़ीम ये औरत की ज़ात होती है।...
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये...
भुखमरी, बेरोज़गारी, तस्करी के एहतिमाम, सन् सतासी नज़्र कर दें मज़हबी दंगों के नाम। दोस्त ! मलियाना में जाके देखिए, दो क़दम 'हिटलर' से आगे है ये जम्हूरी निज़ाम।...
ये अमीरों से हमारी फ़ैसलाकुन जंग थी, फिर कहाँ से बीच में मस्जिद औ' मंदर आ गए। जिनके चेह्रे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील, रामनामी ओढ़कर संसद के अन्दर आ गए।...
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे, हम अपने इस कालखण्ड का एक नया इतिहास लिखेंगे। सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर, उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे।...
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है...
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे...
बज़ाहिर प्यार को दुनिया में जो नाकाम होता है, कोई रूसॊ कोई हिटलर, कोई ख़ैयाम होता है। ज़हर देते हैं उसको हम कि ले जाते हैं सूली पर, यही इस दौर के मंसूर का अंजाम होता है।...
ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की क़िताब ...
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो...
हीरामन बेज़ार है उफ़्! किस कदर महँगाई से, आपकी दिल्ली में उत्तर-आधुनिकता आई है। टी० वी० से अख़बार तक हैं, जिस्म के मोहक कटाव, ये हमारी सोच है, ये सोच की गहराई है।...
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है। भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारिन-सी, ये सुबहे-फ़रवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।...
विकट बाढ़ की करुण कहानी, नदियों का संन्यास लिखा है, बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है। क्रूर नियति ने इसकी क़िस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है, मन के पृष्ठों पर शाकुन्तल, अधरों पर संत्रास लिखा है।...
विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया मन के पृष्ठों पर शकुंतला अधरों पर संत्रास लिखा है...
ये दुखड़ा रो रहे थे आज पंडित जी शिवाले में, कि कम्प्यूटर कथा बाँचेगा ढिबरी के उजाले में। विदेशी पूंजी मंत्री जी की अय्याशी में गलती है, ज़ह्र कर्ज़े का घुल जाता है मुफ़्लिस के निवाले में।...
गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे ? जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?...
कब तक सहेंगे ज़ुल्म रफ़ीक़ो-रक़ीब के, शोलों में अब ढलेंगे ये आँसू ग़रीब के। इक हम हैं भुखमरी के जहन्नुम में जल रहे, इक आप हैं दुहरा रहे क़िस्से नसीब के।...
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से...
जिस्म क्या है, रुह तक सब कुछ खुलासा देखिए, आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए। जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज, उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए।...
जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़ उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये...
घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है...
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी...
जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है...
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है ...
वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है, उसी के दम से रौनक़ आपके बँगलों में आई है। इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का, उधर लाखों में गाँधी जी के चेलों की कमाई है।...
ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की क़िताब...
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में उतरा है रामराज विधायक निवास में पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत...
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए...
जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिए जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़ उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए...
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है ...