बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को। सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए, गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को। शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून, पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को। पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है, इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को।

Read Next