कब तक सहेंगे ज़ुल्म रफ़ीक़ो-रक़ीब के,
शोलों में अब ढलेंगे ये आँसू ग़रीब के।
इक हम हैं भुखमरी के जहन्नुम में जल रहे,
इक आप हैं दुहरा रहे क़िस्से नसीब के।
उतरी है जबसे गाँव में फ़ाक़ाकशी की शाम,
बेमानी होके रह गए रिश्ते क़रीब के।
इक हाथ में क़लम है और इक हाथ में क़ुदाल,
बावस्ता हैं ज़मीन से सपने अदीब के।