ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है
ये समझते हैं, खिले हैं तो फिर बिखरना है पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है उससे मिलने को कई मोड़ से गुज़रना है अभी तो आग के दरिया में भी उतरना है जिसके आने से बदल जाए ज़माने का निज़ाम ऐसे इंसान को इस ख़ाक से उभरना है बह रहा दरिया, इधर एक घूँट को तरसें उदय प्रताप जी वादे से ये मुकरना है

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