मंत्र हूँ
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं! एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको ऊसर मैदानों पर खेतों खलिहानों पर काली चट्टानों पर....। मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं आज अगर चुप हूँ धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन; तो मैं नहीं तुम ही हो उत्तरदायी इसके। तुमने ही मुझे कभी ध्यान से निहारा नहीं, छुआ या पुकारा नहीं, छिद्रों में फूँक नहीं दी तुमने, तुमने ही वर्षों से अपनी पीड़ाओं को, क्रंदन को, मूक, भावहीन, बने रहने की स्वीकृति दी; मुझको भी विवश किया तुमने अभिव्यक्तिहीन होकर खुद! लेकिन मैं अब भी गा सकता हूँ अब भी यदि होठों पर रख लो तुम देकर मुझको अपनी आत्मा सुख-दुख सहने दो, मेरे स्वर को अपने भावों की सलिला में अपनी कुंठाओं की धारा में बहने दो। प्राणहीन है वैसे तेरा तन तुमको ही पाकर पूर्णत्व प्राप्त करता है, मुझको पहचानो तुम पृथक नहीं सत्ता है! --तुम ही हो जो मेरे माध्यम से विविध रूप धर कर प्रतिफलित हुआ करते हो! मुझको उच्चरित करो चाहे जिन भावों में गढ़कर! मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं फेंको मुझको एक बूँद आँसू में पढ़कर!

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