क्षमा
"आह! मेरा पाप-प्यासा तन किसी अनजान, अनचाहे, अकथ-से बंधनों में बँध गया चुपचाप मेरा प्यार पावन हो गया कितना अपावन आज! आह! मन की ग्लानि का यह धूम्र मेरी घुट रही आवाज़! कैसे पी सका विष से भरे वे घूँट...? जँगली फूल सी सुकुमार औ’ निष्पाप मेरी आत्मा पर बोझ बढ़ता जा रहा है प्राण! मुझको त्राण दो... दो...त्राण...." और आगे कह सका कुछ भी न मैं टूटे-सिसकते अश्रुभीगे बोल में सब बह गए स्वर हिचकियों के साथ औ’ अधूरी रह गई अपराध की वह बात जो इक रात....। बाक़ी रहे स्वप्न भी मूक तलुओं में चिपककर रह गए। और फिर बाहें उठीं दो बिजलियों सी नर्म तलुओं से सटा मुख-नम आया वक्ष पर उद्भ्रान्त; हल्की सी ‘टपाऽटप’ ध्वनि सिसकियाँ और फिर सब शांत.... नीरव.....शांत.......।

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