एक जन्मदिन पर
एक घनिष्ठ-सा दिन आज एक अजनबी की तरह पास से निकल गया एक और सोते सा सूख गया! टूट गया एक और बाजू सा! एक घनिष्ठ सा दिन- जिसे मैं चुंबनों से रचकर और कई सार्थक प्रसंगों तक तुम तक आ सकता था! मैं जिसको होठों पर रखकर गा सकता था स्वरों में नहीं पकड़ आया गरम-गरम बालू-सा फिसल गया! मटमैली चादर-सी बिछी रही सड़कें और ख़ाली पलंग-सा शहर! मेरी आँखों में--देखते-देखते बिना किसी आहट के, पिछली दशाब्दी का कैलेण्डर बदल गया!!

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