अनुभव-दान
"खँडहरों सी भावशून्य आँखें नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं। बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं; टूटी हुई जिंदगी आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है; कटी हुई पतंगों से हम सब छत की मुँडेरों पर पड़े हैं।" बस! बस!! बहुत सुन लिया है। नया नहीं है ये सब मैंने भी किया है। अब वे दिन चले गए, बालबुद्धि के वे कच्चे दिन भले गए। आज हँसी आती है! व्यक्ति को आँखों में क़ैद कर लेने की आदत पर, रूप को बाहों में भर लेने की कल्पना पर, हँसने-रोने की बातों पर, पिछली बातों पर, आज हँसी आती है! तुम सबकी ऐसी बातें सुनने पर रुई के तकियों में सिर धुनने पर, अपने हृदयों को भग्न घोषित कर देने की आदत पर, गीतों से कापियाँ भर देने की आदत पर, आज हँसी आती है! इस सबसे दर्द अगर मिटता तो रुई का भाव तेज हो जाता। तकियों के गिलाफ़ों को कपड़े नहीं मिलते। भग्न हृदयों की दवा दर्जी सिलते। गीतों से गलियाँ ठस जातीं। लेकिन, कहाँ वह उदासी अभी मिट पाई! गलियों में सूनापन अब भी पहरा देता है, पर अभी वह घड़ी कहाँ आई! चाँद को देखकर काँपो तारों से घबराओ भला कहीं यूँ भी दर्द घटता है! मन की कमज़ोरी में बहकर खड़े खड़े गिर जाओ खुली हवा में न आओ भला कहीं यूँ भी पथ कटता है! झुकी हुई पीठ, टूटी हुई बाहों वाले बालक-बालिकाओं सुनो! खुली हवा में खेलो। चाँद को चमकने दो, हँसने दो देखो तो ज्योति के धब्बों को मिलाती हुई रेखा आ रही है, कलियों में नए नए रंग खिल रहे हैं, भौरों ने नए गीत छेड़े हैं, आग बाग-बागीचे, गलियाँ खूबसूरत हैं। उठो तुम भी हँसी की क़ीमत पहचानो हवाएँ निराश न लौटें। उदास बालक बालिकाओं सुनो! समय के सामने सीना तानो, झुकी हुई पीठ टूटी हुई बाहों वाले बालकों आओ मेरी बात मानो।

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