‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है, तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ? जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका, नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?...
अल्पसंख्यकों के आँसू यदि पुछे नहीं, वृथा देश में तो कायम सरकार है। बहुमत को तो अलम स्वयं अपना बल है, अल्पसंख्यकों का शासन पर भार है।...
मैं वरुण भानु-सा अरुण भूमि पर उतरा रुद्र-विषाण लिए, सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का तेजवन्त धनु-बाण लिए।...
समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के। समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन, लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन।...
सब की ईर्ष्या, द्वेष, जलन का भाजन केवल मात्र हूँ, फिर भी, हरि को धन्यवाद है, मैं न दया का पात्र हूँ।...
झंझा सोई, तूफान रुका, प्लावन जा रहा कगारों में; जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में।...
रूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी की मैंने मनुहार बहुत , पर आँख नहीं उसने फेरी। वर्षा गई, शरत आया, जल घटा, पुलिन ऊपर आये, बसे बबूलों पर खगदल, फुनगी पर पीत कुसुम छाये।...
प्रेम के नैराश्य की कविता लिखो तो मार्क्स कहते हैं कि यह सब बुर्जुआपन है। युवतियों को देख कर देखो मुकुर तो फ्रायड इसको "ओडिपस कंप्लेक्स" कहते हैं।...
संगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।...
न तो सोचता है भविष्य पर, न तो भूत का धरता ध्यान, केवल वर्तमान का प्रेमी, इसीलिए, शैशव छविमान। क्या तुम्हें संतान है कोई, जिसे तुम देख मन ही मन भरे आनन्द से रहते?...
मानव है वह जो गिरा है पाप-पंक में, सन्त है जो रो रहा ग्लानि-परिताप से। किन्तु, जो पतन को समझ ही न पाता है, राक्षस है, दोष कर रोष भी दिखाता है।...
शिक्षा जहाँ अबंध, मुक्त है, उन देशों के लोगों को साथ लगा ले जो चाहे, पर, कोई हाँक नहीं सकता।...
कुछ कहते हैं, विश्व एक दिन जल जाएगा, कुछ कहते हैं, विश्व एक दिन गल जाएगा। मुझे दीखता, दोनों ही सच हो सकते हैं। तृष्णा वह्नि है, जगती उसमें जल सकती है।...
छिप जाऊँ कहाँ तुम्हें लेकर? इस विष का क्या उपचार करूँ? प्यारे स्वदेश! खाली आऊँ? या हाथों में तलवार धरूँ?...
रोटी को निकले हो? तो कुछ और चलो तुम। प्रेम चाहते हो? तो मंजिल बहुत दूर है। किन्तु, कहीं आलोक खोजने को निकले हो तो क्षितिजों के पार क्षितिज पर चलते जाओ।...
अयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे...
भावों के आवेग प्रबल मचा रहे उर में हलचल। कहते, उर के बाँध तोड़ स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,...
जन्मभूमि से दूर, किसी बन में या सरित-किनारे, हम तो लो, सो रहे लगाते आजादी के नारे। ज्ञात नहीं किनको कितने दुख में हम छोड़ चले हैं, किस असहाय दशा में किनसे नाता तोड़ चले हैं।...
अवनी के नक्षत्र! प्रकृति के उज्ज्वल मुक्ताहार! उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार! मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्भ्रान्त! उर में मचल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त!...
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी? ऊपर निरभ्र नभ नील-नील, नीचे घन-विम्बित झील-झील। उत्तर किरीट पर कनक-किरण,...
सब कहते हैं, जाँच साहसी की है प्राण गँवाने में; कभी-कभी जीवित रहने में हिम्मत देखी जाती है।...
राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी, कोई विह्वल बजा रहा था नीचे वंशी प्यारी। "बस, बस, रुको, इसे सुनकर मन भारी हो जाता है, अभी दूर अज्ञात दिशा की ओर न उड़ पाता है।...
शत्रु से मैं खुद निबटना जानता हूँ, मित्र से पर, देव! तुम रक्षा करो। वातायन के पास खड़ा यह वृक्ष मनोहर कहता है, यदि मित्र तुम्हें छोड़ने लगे हैं,...
ऊपर सुनील अम्बर, नीचे सागर अथाह, है स्नेह और कविता, दोनों की एक राह। ऊपर निरभ्र शुभ्रता स्वच्छ अम्बर की हो, नीचे गभीरता अगम-अतल सागर की हो।...
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं, शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा, जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं, जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,...
गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है।...
जीवन उनके लिए मधुरता की उज्जवल रसधार है, जिनकी आत्मा निष्कलंक है और किसी से प्यार है। सुखी जीवन अधिकतर शान्त होता है। जहाँ हलचल बढ़ी आनन्द चल देता वहाँ से।...
रचना में क्या-क्या गुण होने चाहिए, कूद-फाँदकर भी तुम नहीं बताते हो। पर, रचना के दुर्गुण अपनी ही कृति में कदम-कदम पर खूब दिखाये जाते हो।...
सबके प्रति सौजन्य और बहुतों से रक्खो राम-सलाम, मेलजोल थोड़े लोगों से, मैत्री किसी एक जन से।...
सिंधुतट की बालुका पर जब लिखा मैने तुम्हारा नाम याद है, तुम हंस पड़ीं थीं, 'क्या तमाशा है लिख रहे हो इस तरह तन्मय कि जैसे लिख रहे होओ शिला पर।...
बोल रही जो आग उबल तेरे दर्दीले सुर में, कुछ वैसी ही शिखा एक सोई है मेरे उर में। जलती बत्ती छुला, न यह निर्वाषित दीप जला। बटोही, धीरे-धीरे गा।...
सोचना है मूल सारी वेदना का, छोड़ दो चिन्ता, बड़े सुख से जियोगे। शान्ति का उत्संग तब होगा सुलभ, जब मानसिक निस्तब्धता का रस पियोगे।...
कल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए, ऐसे भी अपना भरम गँवाया जाता है? जिस दर्पण में गोपन-मन की छाया पड़ती, वह भी सब के सामने दिखाया जाता है?...
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है। चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से;...
उसे भी देख, जो भीतर भरा अंगार है साथी। सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को, किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को। उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,...