मित्र
शत्रु से मैं खुद निबटना जानता हूँ, मित्र से पर, देव! तुम रक्षा करो। वातायन के पास खड़ा यह वृक्ष मनोहर कहता है, यदि मित्र तुम्हें छोड़ने लगे हैं, तो विपत्ति क्या? इससे तुम न तनिक घबराना। कवि को कौन असंग बना सकता है भू पर? लो, मैं अपना हाथ बढ़ाता हूँ खिड़की से, मैत्री में तुम भी अब अपना हाथ बढ़ाओ।

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