प्रतीक्षा
अयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस है, दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे उसका पता मिलता नहीं, झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत आकश है; मिलती नहीं जग में कहीं प्रतिमा हृदय के गान की। अयि संगिनी सुनसान की! तुम जानती सब बात हो, दिन हो कि आधी रात हो, मैं जागता रहता कि कब मंजीर की आहट मिले, मेरे कमल-वन में उदय किस काल पुण्य-प्रभात हो; किस लग्न में हो जाय कब जानें कृपा भगवान की। अयि संगिनी सुनसान की! मुख में हँसी, मन म्लान है, उजड़े घरों में गान है, जग ने सिखा रक्खा, गरल पीकर सुधा-वर्षण करो, मन में पचा ले आह जो सब से वही बलवान है। उर में पुरातन पीर, मुख पर द्युति नई मुसकान की। अयि संगिनी सुनसान की!

Read Next