बटोही, धीरे-धीरे गा
बोल रही जो आग उबल तेरे दर्दीले सुर में, कुछ वैसी ही शिखा एक सोई है मेरे उर में। जलती बत्ती छुला, न यह निर्वाषित दीप जला। बटोही, धीरे-धीरे गा। फुँकी जा रही रात, दाह से झुलस रहे सब तारे, फूल नहीं, लय से पड़ते हैं झड़े तप्त अंगारे। मन की शिखा सँभाल, न यों दुनिया में आग लगा। बटोही, धीरे-धीरे गा। दगा दे गया भाग? कि कोई बिछुड़ गया है अपना? मनसूबे जल गये? कि कोई टूट गया है सपना? किसी निठुर, निर्मोही के हाथों या गया छला? बटोही, धीरे-धीरे गा। करुणा का आवेग? कि तेरा हृदय कढ़ा आता है? लगता है, स्वर के भीतर से प्रलय बढ़ा आता है? आहों से फूँकने जगत-भर का क्यों हृदय चला? बटोही, धीरे-धीरे गा। अनगिनती सूखी आँखों से झरने होंगे जारी, टूटेंगी पपड़ियाँ हृदय की, फूटेगी चिनगारी। दुखियों का जीवन कुरेदना भी है पाप बड़ा। बटोही, धीरे-धीरे गा। नेह लगाने का जग में परिणाम यही होता है, एक भूल के लिए आदमी जीवन-भर रोता है। अश्रु पोंछनेवाला जग में विरले को मिलता। बटोही, धीरे-धीरे गा। एक भेद है, सुन मतवाले, दर्द न खोल कहीं जा, मन में मन की आह पचाले, जहर खुशी से पी जा। व्यंजित होगी व्यथा, गीत में खुद मत कभी समा। बटोही, धीरे-धीरे गा।

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