शेष गान
संगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं। इन गीतों में रश्मि अरुण है, बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है, बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं। बधे सिमट कुछ भाव प्रणय के, कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के, पर, इन से जो परे तत्व वर्णों में उसे बिठा न सका मैं। घूम चुकी कल्पना गगन में, विजन विपिन, नन्दन-कानन में, अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं। गाता गीत विजय-मद-माता, मैं अपने तक पहुँच न पाता, स्मृति-पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं। परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ, गन्ध-मात्र से झूम रहा हूँ, जो अपीत रस-पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं। सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है, हँसता एक कुसुम खिलखिल है, देख-देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं। पट पर पट मैं खींच हटाता, फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता, यह माया मय भेद कौन? मन को अब तक समझा न सका मैं। पल-पल दूर देश है कोई, अन्तिम गान शेष है कोई, छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं। उडे जा रहे पंख पसारे, गीत व्योम के कूल-किनारे, उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं। जिस दिन वह स्वर में आयेगा, शेष न फिर कुछ रह जायेगा, कह कर उसे कहूँगा वह जो अब तक कभी सुना न सका मैं।

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