विजन में
गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है। सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर तटी-बीच कर देर रहा हूँ; गहन शान्ति के अंतराल में डूब-डूब कुछ हेर रहा हूँ। मुझ मानव को क्षितिज-वृत्त से घेर रही नीलिमा गगन की, तब भी सीमाहीन दीखती आज परिधि मेरे जीवन की। चीर शान्ति का हृदय दूर पर झिल्ली ठहर-ठहर गाती है; किसी अर्द्ध-विस्मृत सपने की धूमिल-सी स्मृति उपजाती है। सुघर, मूक, स्वप्नों के शिशु-से मन्द मेघ नभ में तरते हैं, नीरव ही नीरव चलकर नीरवता में जीवन भरते हैं। जड़-चेतन विश्राम रहे कर प्रभू के एक शान्तिमय क्रम में, अभी सृष्टि पूरी लगती है, द्वन्द्व न कहीं विषम औ’ सम में। मर्त्य-अमर्त्य एक-से लगते, मैं उन्मन कुछ सोच रहा हूँ, मिट्टी मेरी खड़ी धरा पर, किन्तु, स्वयं इस काल कहाँ हूँ?

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