जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि
वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।
पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।
किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।
किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के।